Monday, November 4, 2024

NCERT कक्षा दसवीं संस्कृत शेमुषी - शुचिपर्यावरणम् - 2

NCERT कक्षा दसवीं संस्कृत शेमुषी - शुचिपर्यावरणम् - 2

NCERT कक्षा दसवीं संस्कृत शेमुषी

शुचिपर्यावरणम् (पाठ १)

विद्यालय का चित्र

शुचिपर्यावरणम् - पद्य 1

दुर्वहमत्र जीवितं जातं प्रकृतिरेव शरणम्। शुचि-पर्यावरणम्।।
महानगरमध्ये चलदनिशं कालायसचक्रम्। मनः शोषयत् तनूः पेषयद् भ्रमति सदा वक्रम्॥
दुर्दान्तैर्दशनैरमुना स्यान्नैव जनग्रसनम्। शुचि...।।1॥

वैयाकरणिक विच्छेद: (पद्य 1)

दुर्वहम् (दुस् + वह + अम्) - दुष्कर, कठिन | अत्र - यहाँ | जीवितम् (जीव् + क्त) - जीवन | जातम् (जन् + क्त) - हो गया है | प्रकृतिः (प्रकृति) - प्रकृति | एव - ही | शरणम् (शरण) - शरण | शुचि-पर्यावरणम् (शुचि + पर्यावरणम्) - शुद्ध पर्यावरण | महानगरमध्ये (महानगर + मध्ये) - महानगर के बीच में | चलत् (चल् + शतृ) - चल रहा हुआ | अनिशम् - निरंतर | कालायसचक्रम् (काल + आयस + चक्र) - लोहे का काला चक्र | मनः (मनस्) - मन | शोषयत् (शुष् + णिच् + शतृ) - सुखाता हुआ | तनूः (तनू) - शरीर | पेषयत् (पिष् + णिच् + शतृ) - पीसता हुआ | भ्रमति (भ्रम् + लट्) - घूम रहा है | सदा - हमेशा | वक्रम् - टेढ़ा | दुर्दान्तैः (दुर्दांत + ऐस्) - दुर्दांत | दशनैः (दशन) - दांतों से | अमुना (अदस्) - इस | स्यात् (अस्) - हो | न - नहीं | एव - ही | जनग्रसनम् (जन + ग्रसन) - जन-ग्रसन, लोगों का भक्षण

अन्वय: (पद्य 1)

अत्र जीवितं दुर्वहं जातम्। प्रकृतिः एव शरणम्। शुचि पर्यावरणम्। महानगरमध्ये कालायसचक्रम् अनिशं चलत् मनः शोषयत् तनूः पेषयत् सदा वक्रं भ्रमति। अमुना दुर्दान्तैः दशनैः जनग्रसनम् न एव स्यात्। शुचि पर्यावरणम्।

भावार्थ: (पद्य 1)

यहाँ जीवन दूभर हो गया है। प्रकृति ही एकमात्र शरण है। शुद्ध पर्यावरण ही कल्याणकारी है। महानगर के बीच में लोहे का काला चक्र (मशीनें) निरंतर चल रहा है, जो मन को सुखा रहा है और शरीर को पीस रहा है। यह चक्र हमेशा टेढ़ा घूम रहा है। इस दुर्दांत चक्र के दांतों से लोगों का भक्षण नहीं होना चाहिए। शुद्ध पर्यावरण की आवश्यकता है।

शुचिपर्यावरणम् - पद्य 2

कज्ञ्जलमलिनं धूमं मुञ्चति शतशकटीयानम्। वाष्पयानमाला संधावति वितरन्ती ध्वानम्॥
यानानां पङ्क्तयो ह्यनन्ताः कठिनं संसरणम्। शुचि...।।॥2॥

वैयाकरणिक विच्छेद: (पद्य 2)

कज्जलमलिनम् (कज्जल + मलिन) - काजल से मलिन, काला | धूमम् (धूम) - धुआँ | मुञ्चति (मुच् + लट्) - छोड़ता है | शतशकटीयानम् (शत + शकटी + यान) - सैकड़ों शक्तिशाली वाहन | वाष्पयानमाला (वाष्प + यान + माला) - भाप से चलने वाले वाहनों की माला | संधावति (सृ + धाव् + णिच् + लट्) - तेज गति से चलती है | वितरन्ती (वितृ + शतृ) - फैलाती हुई | ध्वानम् (ध्वान) - शोर | यानानां (यान) - वाहनों की | पङ्क्तयः (पङ्क्ति) - पंक्तियाँ | हि - निश्चय ही | अनन्ताः (अनन्त) - अनंत | कठिनम् (कठिन) - कठिन | संसरणम् (संसरण) - आवागमन | शुचि... - शुचि...

अन्वय: (पद्य 2)

शतशकटीयानम् कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति। वाष्पयानमाला ध्वानं वितरन्ती संधावति॥ यानानां पङ्क्तयः हि अनन्ताः। संसरणम् कठिनम्। शुचि पर्यावरणम्।।

भावार्थ: (पद्य 2)

सैकड़ों शक्तिशाली वाहन काजल के समान काला धुआँ छोड़ते हैं। भाप से चलने वाले वाहनों की एक कतार शोर फैलाते हुए तेज गति से चलती है। वाहनों की पंक्तियाँ अनंत हैं। जिससे आवागमन कठिन हो गया है। शुद्ध पर्यावरण की कामना करते हैं।

शुचिपर्यावरणम् - पद्य 3

वायुमण्डलं भृशं दूषितं न हि निर्मलं जलम्। कुत्सितवस्तुमिश्रितं भक्ष्यं समलं धरातलम् ॥
करणीयं बहिरन्तर्जगति तु बहु शुद्धीकरणम्। शुचि...।॥३॥

वैयाकरणिक विच्छेद: (पद्य 3)

वायुमण्डलम् (वायु + मण्डलम्) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | भृशम् - अव्यय | दूषितम् (दूष् + क्त) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | न - अव्यय | हि - अव्यय | निर्मलम् (निर् + मल) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | जलम् - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | कुत्सितवस्तुमिश्रितम् (कुत्सित + वस्तु + मिश्रित) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | भक्ष्यम् (भक्ष् + य) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | समलम् (सम् + मल) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | धरातलम् (धरा + तलम्) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | करणीयम् (कृ + अनीयर्) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | बहिरन्तर्जगति (बहिः + अन्तः + जगति) - सप्तमी विभक्ति, एकवचन | तु - अव्यय | बहु - अव्यय | शुद्धीकरणम् (शुद्धि + करण) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | शुचि... - शुद्ध पर्यावरण

अन्वय: (पद्य 3)

वायुमण्डलं भृशं दूषितम्। जलं न हि निर्मलम्। भक्ष्यं कुत्सितवस्तुमिश्रितम्। धरातलं समलम्। बहिरन्तर्जगति तु बहु शुद्धीकरणं करणीयम्। शुचि पर्यावरणम्।

भावार्थ: (पद्य 3)

वायुमंडल अत्यधिक प्रदूषित है। जल भी स्वच्छ नहीं है। भोजन हानिकारक पदार्थों से मिला हुआ है। धरती गंदी है। इसलिए, बाहरी और आंतरिक दुनिया, दोनों में, व्यापक शुद्धीकरण आवश्यक है। शुद्ध पर्यावरण की आवश्यकता है।

शुचिपर्यावरणम् - पद्य 4

कञ्चित् कालं नय मामस्मान्नगराद् बहुदूरम्। प्रपश्यामि ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरम् ।।
एका Ante कान्तारे क्षणमपि मे स्यात् सञ्चरणम्। शुचि...॥4॥

वैयाकरणिक विच्छेद: (पद्य 4)

कञ्चित् (किम् + चित्) - पुंलिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | कालम् - पुंलिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | नय (नी) - लोट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन | माम् - सर्वनाम, उत्तम पुरुष, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | अस्मात् - सर्वनाम, इदम्, पंचमी विभक्ति, एकवचन | नगरात् (नगर + abl.) - नपुंसकलिंग, पंचमी विभक्ति, एकवचन | बहुदूरम् (बहु + दूर) - अव्यय | प्रपश्यामि (प्र + पश्य) - लट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन | ग्रामान्ते (ग्राम + अन्ते) - पुंलिंग, सप्तमी विभक्ति, एकवचन | निर्झर-नदी-पयःपूरम् (निर्झर + नदी + पयः + पूर) - पुंलिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | एकान्ते - सप्तमी विभक्ति, एकवचन | कान्तारे - पुंलिंग, सप्तमी विभक्ति, एकवचन | क्षणमपि (क्षण + अपि) - अव्यय | मे - सर्वनाम, उत्तम पुरुष, षष्ठी विभक्ति, एकवचन | स्यात् (अस्) - विधिलिङ् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन | सञ्चरणम् (सञ्चर + अण) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | शुचि... - शुद्ध पर्यावरण

अन्वय: (पद्य 4)

माम् कञ्चित् कालं अस्मात् नगरात् बहुदूरं नय। ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरं प्रपश्यामि। एकान्ते कान्तारे मे क्षणमपि सञ्चरणम् स्यात्। शुचि पर्यावरणम्।

भावार्थ: (पद्य 4)

हे ईश्वर! मुझे कुछ समय के लिए इस नगर से बहुत दूर ले चलो। मैं गाँव के बाहर झरनों, नदियों और जल से भरे हुए सुन्दर स्थानों को देखना चाहता हूँ। एकांत वन में मुझे थोड़ी देर के लिए भी भ्रमण करने का अवसर मिले। शुद्ध पर्यावरण की मैं कामना करता हूँ।

शुचिपर्यावरणम् - पद्य 5

हरिततरूणां ललितलतानां माला रमणीया। कुसुमावलिः समीरचालिता स्यान्मे वरणीया ॥
यहाँ 'shed' शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है। कृपया स्पष्ट करें। नवमालिका रसालं मिलिता रुचिरं संगमनम्। शुचि...।॥5॥

वैयाकरणिक विच्छेद: (पद्य 5)

हरिततरूणां (हरित + तरु) - पुंलिंग, षष्ठी विभक्ति, बहुवचन | ललितलतानाम् (ललित + लता) - स्त्रीलिंग, षष्ठी विभक्ति, बहुवचन | माला - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | रमणीया (रम् + अनीयर्) - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | कुसुमावलिः (कुसुम + अवलि) - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | समीरचालिता (समीर + चालित) - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | स्यान्मे (अस् + उत्तम पुरुष, एकवचन) - विधिलिङ् लकार | वरणीया (वृ + अनीयर्) - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | shed - अस्पष्ट | नवमालिका (नव + मालिका) - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | रसालम् - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | मिलिता (मिल + क्त) - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | रुचिरम् - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | संगमनम् (सम् + गम् + अण) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | शुचि... - शुद्ध पर्यावरण

अन्वय: (पद्य 5)

हरिततरूणां ललितलतानां माला रमणीया। समीरचालिता कुसुमावलिः मे वरणीया स्यात्। नवमालिका रसालं मिलिता रुचिरं संगमनम्। शुचि पर्यावरणम्।

भावार्थ: (पद्य 5)

हरे-भरे पेड़ों और सुंदर लताओं की पंक्तियाँ बहुत मनोरम होती हैं। हवा से हिलती हुई फूलों की मालाएं मेरे लिए वरण करने योग्य हों। नई माला और आम के पेड़ का मिलन सुन्दर होता है। शुद्ध पर्यावरण अच्छा लगता है।

शुचिपर्यावरणम् - पद्य 6

अयि चल बन्धो ! खगकुलकलरवगुञ्जितवनदेशम्। पुर-कलरवसम्भ्रमितजनेभ्यो धृतसुखसन्देशम्।।
चाकचिक्यजालं नो कुर्याज्जीवितरसहरणम्। शुचि...।॥6॥

वैयाकरणिक विच्छेद: (पद्य 6)

अयि - अव्यय | चल (चल्) - लोट् लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन | बन्धो (बन्धु) - पुंलिंग, सम्बोधन एकवचन | खगकुलकलरवगुञ्जितवनदेशम् (खगकुल + कलरव + गुञ्जित + वन + देश) - पुंलिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | पुर-कलरवसम्भ्रमितजनेभ्यो (पुर + कलरव + सम्भ्रमित + जन + एभ्यः) - पुंलिंग, पंचमी विभक्ति, बहुवचन | धृतसुखसन्देशम् (धृत + सुख + सन्देश) - पुंलिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | चाकचिक्यजालम् (चाकचिक्य + जाल) - नपुंसकलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | नो (नः) - सर्वनाम, उत्तम पुरुष, चतुर्थी विभक्ति, बहुवचन | कुर्यात् (कृ) - विधिलिङ् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन | जीवितरसहरणम् (जीवन + रस + हरण) - नपुंसकलिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | शुचि... - शुद्ध पर्यावरण

अन्वय: (पद्य 6)

अयि बन्धो ! चल खगकुलकलरवगुञ्जितवनदेशम्, पुर-कलरवसम्भ्रमितजनेभ्यो धृतसुखसन्देशम्। चाकचिक्यजालं नः जीवितरसहरणम् न कुर्यात्। शुचि पर्यावरणम्।

भावार्थ: (पद्य 6)

हे मित्र! आओ हम पक्षियों के कलरव से गूंजते वन प्रदेश में चलें, जो नगर के शोर से व्याकुल लोगों के लिए सुख का संदेश लाता है। यह चकाचौंध और दिखावे का जाल हमारे जीवन के सार को नष्ट न कर दे। शुद्ध पर्यावरण की कामना है।

शुचिपर्यावरणम् - पद्य 7

प्रस्तरतले लतातरुगुल्मा नो भवन्तु पिष्टाः। पाषाणी सभ्यता निसर्गे स्यान्न समाविष्टा ।।
मानवाय जीवनं कामये नो जीवन्मरणम्। शुचि...।॥7॥

वैयाकरणिक विच्छेद: (पद्य 7)

प्रस्तरतले (प्रस्तर + तले) - पुंलिंग, सप्तमी विभक्ति, एकवचन | लतातरुगुल्माः (लता + तरु + गुल्म) - पुंलिंग, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन | नो - अव्यय | भवन्तु (भू) - लोट् लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन | पिष्टाः (पिष् + क्त) - पुंलिंग, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन | पाषाणी (पाषाण) - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | सभ्यता - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | निसर्गे - सप्तमी विभक्ति, एकवचन | स्यात् (अस्) - विधिलिङ् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन | न - अव्यय | समाविष्टा (सम् + आ + विश् + क्त) - स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन | मानवाय (मानव) - पुंलिंग, चतुर्थी विभक्ति, एकवचन | जीवनम् - नपुंसकलिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | कामये (काम) - लट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन | नो - अव्यय | जीवन्मरणम् (जीवन् + मरण) - नपुंसकलिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन | शुचि... - शुद्ध पर्यावरण

अन्वय: (पद्य 7)

प्रस्तरतले लतातरुगुल्माः न पिष्टाः भवन्तु। पाषाणी सभ्यता निसर्गे न समाविष्टा स्यात्। मानवाय जीवनं कामये, न जीवन्मरणम्। शुचि पर्यावरणम्।

भावार्थ: (पद्य 7)

पत्थरों पर लताएँ, पेड़ और झाड़ियाँ कुचली हुई या नष्ट न हों। कंक्रीट की सभ्यता प्रकृति में हस्तक्षेप न करे, प्रकृति पर हावी न हो। मैं मनुष्य के लिए अच्छे जीवन की कामना करता हूँ, न कि जीते-जी मृत्यु के समान दुखद और कष्टदायक जीवन की। शुद्ध पर्यावरण आवश्यक है।

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